यूँही गर हर साँस में थोड़ी कमी हो जाएगी
ख़त्म रफ़्ता रफ़्ता इक दिन ज़िंदगी हो जाएगी
देखने वाले फ़क़त तस्वीर-ए-ज़ाहिर पर न जा
हर नफ़स के साथ दुनिया दूसरी हो जाएगी
गर यही फ़स्ल-ए-जुनूँ-ज़ा है यही अब्र-ए-बहार
अज़्मत-ए-तौबा निसार-ए-मय-कशी हो जाएगी
मर्ग-ए-बे-हंगाम कहते हैं जिसे आज अहल-ए-दर्द
कल यही सूरत बदल कर ज़िंदगी हो जाएगी
ज़िक्र है ज़िंदाँ में वो गुलज़ार पर बिजली गिरी
आज मेरे आशियाँ में रौशनी हो जाएगी
सज्दा गाह-ए-आम पर सज्दे से कुछ हासिल नहीं
मुफ़्त आलूदा जबीन-ए-बंदगी हो जाएगी
ख़त्म है शब चेहरा-ए-मशरिक़ से उठती है नक़ाब
दम-ज़दन में रौशनी ही रौशनी हो जाएगी
मुत्तसिल हैं ज़ोफ़ ओ क़ुव्वत की हदें हाँ होश्यार
वर्ना इस तर्क-ए-ख़ुदी में ख़ुद-कुशी हो जाएगी
ज़ख़्म भी ताज़ा है और दिल भी नहीं मानूस-ए-दर्द
रफ़्ता रफ़्ता यूँही आदत सब्र की हो जाएगी
शम्अ सा जब शाम ही से है गुदाज़-ए-दिल 'रवाँ'
सुब्ह तक क्या जाने क्या हालत तिरी हो जाएगी
ग़ज़ल
यूँही गर हर साँस में थोड़ी कमी हो जाएगी
जगत मोहन लाल रवाँ