यूँ ज़माने में मिरा जिस्म बिखर जाएगा
मिरे अंजाम से हर फूल निखर जाएगा
जाम ख़ाली है सुराही से लहू बहता है
आज की रात वो महताब किधर जाएगा
सैल-ए-गिर्या मिरी आँखों से ये कह जाता है
बस्तियाँ रोएँ तो दिया भी उतर जाएगा
तो कोई अब्र-ए-गुहर-बार समुंदर के लिए
दिल के सहरा से जो चुप-चाप गुज़र जाएगा
आज ये ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ है ज़माने के लिए
कल यही दौर किसी तौर सँवर जाएगा
तेरी हर बात पे मर जाता हूँ मरता भी नहीं
कि मिरी मौत में इंसाँ कोई मर जाएगा
अश्क मोती से बिखर जाएँगे राहों में जहाँ
सू-ए-मंज़िल भी मिरा दीदा-ए-तर जाएगा
मैं मकीं हूँ न मकाँ शहर-ए-मोहब्बत का 'ज़फ़र'
दिल मुसाफ़िर न किसी ग़ैर के घर जाएगा
ग़ज़ल
यूँ ज़माने में मिरा जिस्म बिखर जाएगा
अहमद ज़फ़र