यूँ तो वो शक्ल खो गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल में
फूल है इक खिला हुआ हाशिया-ए-ख़याल में
अब भी वो रू-ए-दिल-नशीं ज़र्द सही हसीं तो है
जैसे जबीन-ए-आफ़्ताब मरहला-ए-ज़वाल में
अब भी वो मेरे हम-सफ़र हैं रविश-ए-ख़याल पर
अब वो नशा है हिज्र में था जो कभी विसाल में
उन के ख़िराम-ए-नाज़ को बू-ए-गुल-ओ-सबा कहा
हम ने मिसाल दी मगर रंग न था मिसाल में
अहल-ए-सितम के दिल में है क्या मिरे कर्ब का हिसाब
उन को ख़बर नहीं कि मैं मस्त हूँ अपने हाल में
कैसा पहाड़ हो गया वक़्त गुज़ारना मुझे
ज़ख़्म पे जम गई नज़र ख़्वाहिश-ए-इंदिमाल में
तू ने मिरे ख़मीर में कितने तज़ाद रख दिए
मौत मिरी हयात में नक़्स मिरे कमाल में
ग़ज़ल
यूँ तो वो शक्ल खो गई गर्दिश-ए-माह-ओ-साल में
ख़ुर्शीद रिज़वी