यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं
बैठने लगता है दिल जूँही क़दम उठते हैं
हम तो इस रज़्म-गह-ए-वक़्त में रहते हैं जहाँ
हाथ कट जाएँ तो दाँतों से अलम उठते हैं
सहल अंगार-तबीअ'त का बुरा हो जिस से
नाज़ उठते हैं तिरे और न सितम उठते हैं
कोई रौंदे तो उठाते हैं निगाहें अपनी
वर्ना मिट्टी की तरह राह से कम उठते हैं
नींद जाती ही नहीं अर्ज़-ए-हुनर से आगे
दफ़्तर-ए-ग़म ही सदा कर के रक़म उठते हैं
दिन की आग़ोश-ए-रज़ाअत से निकल कर 'ताबिश'
रात की रात कफ़-ए-ख़ाक से हम उठते हैं
ग़ज़ल
यूँ तो शीराज़ा-ए-जाँ कर के बहम उठते हैं
अब्बास ताबिश