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यूँ तो इख़्लास में इस के कोई धोका भी नहीं | शाही शायरी
yun to iKHlas mein is ke koi dhoka bhi nahin

ग़ज़ल

यूँ तो इख़्लास में इस के कोई धोका भी नहीं

सय्यदा शान-ए-मेराज

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यूँ तो इख़्लास में इस के कोई धोका भी नहीं
कब बदल जाए मगर इस का भरोसा भी नहीं

काट दी वक़्त ने ज़ंजीर-ए-तअल्लुक़ की कड़ी
अब मुसाफ़िर को कोई रोकने वाला भी नहीं

फिर न यादों के कहीं बंद दरीचे खुल जाएँ
मुद्दतों से तिरी तस्वीर को देखा भी नहीं

जल गया धूप में यादों का ख़ुनुक साया भी
बे-नवा दश्त-ए-बला में कोई हम सा भी नहीं

थक गए हैं मिरे नाकाम इरादों के क़दम
अब निगाहों में कोई शौक़ का सहरा भी नहीं

आइने अक्स से महरूम निगह मंज़र से
अब ये तन्हाई का आलम है कि साया भी नहीं

ऐ मिरी उम्र के मा'ज़ूर गुज़रते लम्हो
तुम ने जाते हुए मुड़ कर कभी देखा भी नहीं