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यूँ शोर-ओ-शर के सारे तलबगार सो गए | शाही शायरी
yun shor-o-shar ke sare talabgar so gae

ग़ज़ल

यूँ शोर-ओ-शर के सारे तलबगार सो गए

इक़बाल अशहर कुरेशी

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यूँ शोर-ओ-शर के सारे तलबगार सो गए
सन्नाटे चीख़ने लगे बाज़ार सो गए

पलकों पे बोझ बन गईं जब दिन की रौनक़ें
आँखों में भर के ख़्वाब गिराँ-बार सो गए

दीवार-ओ-दर भी अपनी मरम्मत से तंग थे
गिर जाए अब मकान कि मे'मार सो गए

सूरज के साथ तू भी लहू रो के डूब जा
ऐ शाम-ए-हिज्र तेरे परस्तार सो गए

'अशहर' किसी के क़ुर्ब-ए-हवसनाक से ग़रज़
अपना भी दिल था भींच के इक बार सो गए