यूँ न जान अश्क हमें जो गया बाना न मिला
दूर ले जाए जो मुझ से कोई ऐसा न मिला
ख़ाली हाथ अब के गुज़रने न दी पेड़ों ने बसंत
पतझड़ आई तो किसी शाख़ पे पत्ता न मिला
अपना साया ही डराता हो तो किस से कहिए
कहिए किस मुँह से कि किस को कोई अपना न मिला
आइना देखने ठहरे तो नज़र काँप गई
और जो अक्स हमीं को हमें ऐसा न मिला
आँख में दरिया लिए फिरते रहे बरसों तक
जिस के सीने में उतर जाता वो सहरा न मिला
दर खुला था तो हवा प्यार लिए आई थी
बंद है तो उसे बाहर कोई अपना न मिला
अपना ही जिस्म बदल जाएगा कब इल्म था 'अश्क'
उठ्ठे तो कल जहाँ सोए थे वो कमरा न मिला
ग़ज़ल
यूँ न जान अश्क हमें जो गया बाना न मिला
बिमल कृष्ण अश्क