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यूँ मिरे पास से हो कर न गुज़र जाना था | शाही शायरी
yun mere pas se ho kar na guzar jaana tha

ग़ज़ल

यूँ मिरे पास से हो कर न गुज़र जाना था

साक़ी फ़ारुक़ी

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यूँ मिरे पास से हो कर न गुज़र जाना था
बोल ऐ शख़्स तुझे कौन नगर जाना था

रूह और जिस्म जहन्नम की तरह जलते हैं
उस से रूठे थे तो इस आग को मर जाना था

राह में छाँव मिली थी कि ठहर सकते थे
इस सहारे को मगर नंग-ए-सफ़र जाना था

ख़्वाब टूटे थे कि आँखों में सितारे नाचे
सब को दामन के अंधेरे में उतर जाना था

हादसा ये है कि हम जाँ न मोअत्तर कर पाए
वो तो ख़ुश-बू था उसे यूँ भी बिखर जाना था