यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
गहराई में क्यूँ न उतर कर देखा जाए
तेज़ हवाएँ याद दिलाने आई हैं
नाम तिरा फिर रेत पे लिख कर देखा जाए
शोर हरीम-ए-ज़ात में आख़िर उट्ठा क्यूँ
अंदर देखा जाए कि बाहर देखा जाए
गाती मौजें शाम ढले सो जाएँगी
बाद में साहिल पहले समुंदर देखा जाए
सारे पत्थर मेरी ही जानिब उठते हैं
उन से कब 'महफ़ूज़' मिरा सर देखा जाए
ग़ज़ल
यूँ ही कब तक ऊपर ऊपर देखा जाए
अहमद महफ़ूज़