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यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़ | शाही शायरी
yun ganwata hai koi jaan-e-aziz

ग़ज़ल

यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़

रसा चुग़ताई

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यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़
ज़िंदगी होती तो हम रखते अज़ीज़

क्या बताएँ अब बिखर जाने के ब'अद
आशियाँ था या हमें तिनके अज़ीज़

ढूँढता है आज कुंज-ए-आफ़ियत
दिल कभी जिस को थे हंगामे अज़ीज़

हुस्न था उस शहर का आवारगी
और हमें थे पाँव के छाले अज़ीज़

ये न क़िस्सा है न अंदाज़-ए-बयाँ
ये मिरा अहवाल है यार-ए-अज़ीज़

घर में जी लगता नहीं और शहर के
रास्ते लगते नहीं अपने अज़ीज़

इस तरह क्या ऐ ग़ुबार-ए-दिल कोई
रक़्स करता है सर-ए-कू-ए-अज़ीज़

साए हैं जितने गुरेज़ाँ धूप से
धूप को हैं उतने ही साए अज़ीज़

या तअल्लुक़ कुछ न था या आप को
ग़म हमारे हो गए इतने अज़ीज़

सामने आते नहीं और ख़्वाब में
मुँह छुपा लेते हैं दुज़दान-ए-अज़ीज़

आँख है या सैर-गाह-ए-रोज़-ओ-शब
वक़्त है या जादा-ए-उम्र-ए-अज़ीज़

क्या अजब जो दर्द-ओ-ग़म रुख़्सत हुए
वो भी थे आख़िर 'रसा' अपने अज़ीज़