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यूँ देखने में तो ऊपर से सख़्त हूँ शायद | शाही शायरी
yun dekhne mein to upar se saKHt hun shayad

ग़ज़ल

यूँ देखने में तो ऊपर से सख़्त हूँ शायद

अक़ील शादाब

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यूँ देखने में तो ऊपर से सख़्त हूँ शायद
मगर दरून-ए-बदन लख़्त लख़्त हूँ शायद

मिरे नसीब में लिक्खी है शब की तारीकी
मैं डूबते हुए सूरज का बख़्त हूँ शायद

क़रीब ओ दूर नहीं है कोई भी अपना सा
उजाड़ बाग़ का तन्हा दरख़्त हूँ शायद

मुझे किसी ने सुना ही नहीं तवज्जोह से
मैं बद-ज़बान सदा-ए-करख़्त हूँ शायद

नहीफ़ काँधों पे बार-ए-ग़म-ए-दो-आलम है
सरापा राहू ओ केतू का तख़्त हूँ शायद

मिरी तलाश में है कोई ऐसा लगता है
किसी का गुम-शुदा 'शादाब' रख़्त हूँ शायद