यूँ देखने में तो ऊपर से सख़्त हूँ शायद
मगर दरून-ए-बदन लख़्त लख़्त हूँ शायद
मिरे नसीब में लिक्खी है शब की तारीकी
मैं डूबते हुए सूरज का बख़्त हूँ शायद
क़रीब ओ दूर नहीं है कोई भी अपना सा
उजाड़ बाग़ का तन्हा दरख़्त हूँ शायद
मुझे किसी ने सुना ही नहीं तवज्जोह से
मैं बद-ज़बान सदा-ए-करख़्त हूँ शायद
नहीफ़ काँधों पे बार-ए-ग़म-ए-दो-आलम है
सरापा राहू ओ केतू का तख़्त हूँ शायद
मिरी तलाश में है कोई ऐसा लगता है
किसी का गुम-शुदा 'शादाब' रख़्त हूँ शायद

ग़ज़ल
यूँ देखने में तो ऊपर से सख़्त हूँ शायद
अक़ील शादाब