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यूँ भी जीने के बहाने निकले | शाही शायरी
yun bhi jine ke bahane nikle

ग़ज़ल

यूँ भी जीने के बहाने निकले

वली आलम शाहीन

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यूँ भी जीने के बहाने निकले
खोज ख़ुद अपना लगाने निकले

पीठ पर बोझ शिकम का ले कर
हम तिरी याद जगाने निकले

आँख लग जाए तो वहशत कम हो
चाँद किस वक़्त न जाने निकले

वही लम्हे जो थे लम्हों से भी कम
अपनी वुसअ'त में ज़माने निकले

इक तबस्सुम पे टलेगी हर बात
दाग़-ए-दिल किस को दिखाने निकले

क़हत-आबाद-ए-सुख़न में 'शाहीन'
क्यूँ ग़ज़ल अपनी गँवाने निकले