यूँ भी जीने के बहाने निकले
खोज ख़ुद अपना लगाने निकले
पीठ पर बोझ शिकम का ले कर
हम तिरी याद जगाने निकले
आँख लग जाए तो वहशत कम हो
चाँद किस वक़्त न जाने निकले
वही लम्हे जो थे लम्हों से भी कम
अपनी वुसअ'त में ज़माने निकले
इक तबस्सुम पे टलेगी हर बात
दाग़ दिलकश को दिखाने निकले
क़हत आबाद-सुख़न में 'शाहीन'
क्यूँ ग़ज़ल अपनी गिनवाने निकले

ग़ज़ल
यूँ भी जीने के बहाने निकले
वली आलम शाहीन