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ये ज़ुल्म है ख़याल से ओझल न कर उसे | शाही शायरी
ye zulm hai KHayal se ojhal na kar use

ग़ज़ल

ये ज़ुल्म है ख़याल से ओझल न कर उसे

साक़ी फ़ारुक़ी

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ये ज़ुल्म है ख़याल से ओझल न कर उसे
जो हासिल-ए-सफ़र है मोअ'त्तल न कर उसे

वो शो'ला-ए-सवाल कि दुनिया उजाल दे
दिल के चराग़ में तो मुक़फ़्फ़ल न कर उसे

हर शेल्फ़ पर सजे हैं मगर दुश्मनों के सर
नादाँ तेरा दिमाग़ है मक़्तल न कर उसे

हैरत तिरी सरिश्त है ना-रस तिरी निगाह
वो उक़्दा-ए-जमाल अभी हल न कर उसे

ये और बात एक सितारे से जंग है
बस जंग है जिहाद-ए-मुसलसल न कर उसे