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ये ज़मीन आसमान का मुमकिन | शाही शायरी
ye zamin aasman ka mumkin

ग़ज़ल

ये ज़मीन आसमान का मुमकिन

ज़फ़र इक़बाल

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ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
नहीं सारे जहान का मुमकिन

अक़्ल की ख़ार-ज़ार वादी में
रख लिया है गुमान का मुमकिन

कुछ मिरे हाल-ए-ज़ार का इम्कान
कुछ तिरी आन-बान का मुमकिन

हैं वही ना-रसाई के नग़्मे
और वही मेहरबान का मुमकिन

कुछ ज़ियादा तबाह कर न सके
जिस्म के साथ जान का मुमकिन

आगे आगे हूँ मैं मिरे पीछे
है मिरे क़द्र-दान का मुमकिन

दूर-तर है सुराग़ का साहिल
धुँद में है निशान का मुमकिन

ला-मकानी ही ला-मकानी है
खो चुका है मकान का मुमकिन

इस बुढ़ापे में भी 'ज़फ़र' आ कर
कोई देखे जवान का मुमकिन