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ये उम्र-ए-हिज्र अगर सर्फ़-ए-इंतिज़ार न हो | शाही शायरी
ye umar-e-hijr agar sarf-e-intizar na ho

ग़ज़ल

ये उम्र-ए-हिज्र अगर सर्फ़-ए-इंतिज़ार न हो

तालिब बाग़पती

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ये उम्र-ए-हिज्र अगर सर्फ़-ए-इंतिज़ार न हो
तो वाक़ई मुझे हस्ती पे ए'तिबार न हो

मुझे नहीं है अगर इन पे इख़्तियार न हो
उन्हें भी ये दिल-ए-बेताब साज़गार न हो

वहाँ वो ख़ुश कि मुझे उन से कुछ गिला ही नहीं
यहाँ ये पास कहीं राज़ आश्कार न हो

रहा-सहा भी दिल-ए-ज़ार का क़रार गया
वो बार-बार ये कहते हैं बे-क़रार न हो

हर एक दामन-ए-गुल पर फ़लक के आँसू हैं
ख़िज़ाँ की मौत से यूँ ज़ीनत-ए-बहार न हो

जफ़ा हुई न वफ़ा अब वो सीखते हैं हया
ख़ुदा करे ये इरादा भी उस्तुवार न हो

न गाएँ इश्क़ के नग़्मे जो बुलबुलें 'तालिब'
चमन में गुल न खिलें मौसम-ए-बहार न हो