ये उम्र-ए-हिज्र अगर सर्फ़-ए-इंतिज़ार न हो
तो वाक़ई मुझे हस्ती पे ए'तिबार न हो
मुझे नहीं है अगर इन पे इख़्तियार न हो
उन्हें भी ये दिल-ए-बेताब साज़गार न हो
वहाँ वो ख़ुश कि मुझे उन से कुछ गिला ही नहीं
यहाँ ये पास कहीं राज़ आश्कार न हो
रहा-सहा भी दिल-ए-ज़ार का क़रार गया
वो बार-बार ये कहते हैं बे-क़रार न हो
हर एक दामन-ए-गुल पर फ़लक के आँसू हैं
ख़िज़ाँ की मौत से यूँ ज़ीनत-ए-बहार न हो
जफ़ा हुई न वफ़ा अब वो सीखते हैं हया
ख़ुदा करे ये इरादा भी उस्तुवार न हो
न गाएँ इश्क़ के नग़्मे जो बुलबुलें 'तालिब'
चमन में गुल न खिलें मौसम-ए-बहार न हो

ग़ज़ल
ये उम्र-ए-हिज्र अगर सर्फ़-ए-इंतिज़ार न हो
तालिब बाग़पती