EN اردو
ये तेरी चाह भी क्या तेरी आरज़ू भी क्या | शाही शायरी
ye teri chah bhi kya teri aarzu bhi kya

ग़ज़ल

ये तेरी चाह भी क्या तेरी आरज़ू भी क्या

अहमद हमदानी

;

ये तेरी चाह भी क्या तेरी आरज़ू भी क्या
हमारे जिस्म में ये दौड़ता लहू भी क्या

है जिस के ध्यान में हर लम्हा ख़्वाब का आलम
मिले कहीं तो करें उस से गुफ़्तुगू भी क्या

तिरे ख़याल की ख़ुश्बू तिरे जमाल का रंग
हमारे दश्त में लेकिन ये रंग-ओ-बू भी क्या

ये तपती रेत ये प्यासी ज़मीं यहाँ लोगो
किसी के प्यार से महकी हुई नुमू भी क्या

हज़ार कोह-ओ-बयाबाँ किए हैं तय लेकिन
हुए हम आबला-पायाँ लहू लहू भी क्या

किसी की याद में कट जाए ज़िंदगी सारी
इक आरज़ू तो है लेकिन ये आरज़ू भी क्या