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ये तमाम ग़ुंचा-ओ-गुल मैं हँसूँ तो मुस्कुराएँ | शाही शायरी
ye tamam ghuncha-o-gul main hansun to muskuraen

ग़ज़ल

ये तमाम ग़ुंचा-ओ-गुल मैं हँसूँ तो मुस्कुराएँ

शकील बदायुनी

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ये तमाम ग़ुंचा-ओ-गुल मैं हँसूँ तो मुस्कुराएँ
कभी यक-ब-यक जो रो दूँ तो सितारे टूट जाएँ

मिरे दाग़-ए-दिल की ताबिश जो कभी ये देख पाएँ
वहीं रश्क-ए-बे-अमाँ से मह-ओ-मेहर डूब जाएँ

कभी ज़ौक़-ए-जुस्तुजू पर अगर ए'तिबार कर लूँ
सर-ए-राह मंज़िलें ख़ुद मुझे ढूँडने को आएँ

कभी बे-क़रार हो कर जो मैं साज़-ए-इश्क़ छेड़ूँ
तो ये मुशतरी-ओ-ज़ोहरा कोई गीत फिर न गाएँ

मिरा ज़ौक़ मय-परस्ती है कुछ इस क़दर मुकम्मल
जो मैं जाम-ए-मय उठा लूँ तो बरस पड़ें घटाएँ

सर-ए-मय-कदा जो देखें मिरी मय-कशी का मंज़र
हों शुयूख़ सर-ब-सज्दा करे ज़ाहिद इल्तिजाएँ