EN اردو
ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम | शाही शायरी
ye tabiat hai to KHud aazar ban jaenge hum

ग़ज़ल

ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम

अहमद फ़राज़

;

ये तबीअत है तो ख़ुद आज़ार बन जाएँगे हम
चारागर रोएँगे और ग़म-ख़्वार बन जाएँगे हम

हम सर-ए-चाक-ए-वफ़ा हैं और तिरा दस्त-ए-हुनर
जो बना देगा हमें ऐ यार बन जाएँगे हम

क्या ख़बर थी ऐ निगार-ए-शेर तेरे इश्क़ में
दिलबरान-ए-शहर के दिलदार बन जाएँगे हम

सख़्त-जाँ हैं पर हमारी उस्तुवारी पर न जा
ऐसे टूटेंगे तिरा इक़रार बन जाएँगे हम

और कुछ दिन बैठने दो कू-ए-जानाँ में हमें
रफ़्ता रफ़्ता साया-ए-दीवार बन जाएँगे हम

इस क़दर आसाँ न होगी हर किसी से दोस्ती
आश्नाई में तिरा मेआ'र बन जाएँगे हम

'मीर' ओ 'ग़ालिब' क्या कि बन पाए नहीं 'फ़ैज़' ओ 'फ़िराक़'
ज़ोम ये था 'रूमी' ओ 'अत्तार' बन जाएँगे हम