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ये तअल्लुक़ तिरी पहचान बना सकता था | शाही शायरी
ye talluq teri pahchan bana sakta tha

ग़ज़ल

ये तअल्लुक़ तिरी पहचान बना सकता था

अहमद ख़याल

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ये तअल्लुक़ तिरी पहचान बना सकता था
तू मिरे साथ बहुत नाम कमा सकता था

ये भी एजाज़ मुझे इश्क़ ने बख़्शा था कभी
उस की आवाज़ से मैं दीप जला सकता था

मैं ने बाज़ार में इक बार ज़िया बाँटी थी
मेरा किरदार मिरे हाथ कटा सकता था

कुछ मसाइल मुझे घर रोक रहे हैं वर्ना
मैं भी मजनूँ की तरह ख़ाक उड़ा सकता था

अब तो तिनका मुझे शहतीर से भारी है 'ख़याल'
मैं किसी वक़्त बहुत बोझ उठा सकता था