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ये सितम की महफ़िल-ए-नाज़ है 'कलीम' इस को और सजाए जा | शाही शायरी
ye sitam ki mahfil-e-naz hai kalim isko aur sajae ja

ग़ज़ल

ये सितम की महफ़िल-ए-नाज़ है 'कलीम' इस को और सजाए जा

कलीम आजिज़

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ये सितम की महफ़िल-ए-नाज़ है 'कलीम' इस को और सजाए जा
वो दिखाएँ रक़्स-ए-सितमगरी तू ग़ज़ल का साज़ बजाए जा

जो अकड़ के शान से जाए है प्यार से ये बताए जा
कि बुलंदियों की है आरज़ू तू दिलों में पहले समाए जा

वो जो ज़ख़्म दें सो क़ुबूल है तिरे वास्ते वही फूल है
यही अहल-ए-दिल का उसूल है वो रुलाए जाएँ तू गाए जा

तिरा सीधा सा वो बयान है तिरी टूटी-फूटी ज़बान है
तिरे पास हैं यही ठेकरे तू महल इन्हीं से बनाए जा

वो जफ़ा-शिआ'र ओ सितम-अदा तू सुख़न-तराज़ ओ ग़ज़ल-सरा
वो तमाम काँटे उगाएँगे तू तमाम फूल खिलाए जा

कोई लाख ज़ोहरा-जबीन है जिसे चाहें हम वो हसीन है
'कलीम' उस सरापा ग़ुरूर को ज़रा आइना तो दिखाए जा