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ये रहगुज़र तो किसी रहगुज़र का धोका है | शाही शायरी
ye rahguzar to kisi rahguzar ka dhoka hai

ग़ज़ल

ये रहगुज़र तो किसी रहगुज़र का धोका है

ख़ालिद महमूद ज़की

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ये रहगुज़र तो किसी रहगुज़र का धोका है
कि उम्र भर का सफ़र भी सफ़र का धोका है

ख़बर की रौशनी अब रौशनी नहीं करती
सो हो न हो ये ख़बर भी ख़बर का धोका है

यहाँ तो हद्द-ए-नज़र तक है एक वीरानी
मिरे गुमाँ ये तुझे किस नगर का धोका है

दिखाई भी तो कहीं दे वो धूप आने पर
शजर वो है कि हमीं को शजर का धोका है

इसी लिए तो ये सहरा अज़ीज़ है कि यहाँ
न शोर-ए-शहर-ए-बला है न घर का धोका है

बदलती जाती है दुनिया कुछ इस तरह 'ख़ालिद'
कि जो नज़र में है समझो नज़र का धोका है