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ये रात काश इसी दिलकशी से ढलती रहे | शाही शायरी
ye raat kash isi dilkashi se Dhalti rahe

ग़ज़ल

ये रात काश इसी दिलकशी से ढलती रहे

हसन अख्तर जलील

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ये रात काश इसी दिलकशी से ढलती रहे
उफ़ुक़ के पास पहाड़ों में आग जलती रहे

दराज़-तर हो ख़यालों की बस्तियों का सफ़र
मिरी तलाश सदा ज़ाविए बदलती रहे

कोई चराग़ न मेरे हरीम-ए-ग़म में जले
ख़ुद अपनी आँच में ये तीरगी पिघलती रहे

शिकस्ता हो के भी नौमीद हो न दिल तेरा
बुझे चराग़ में भी रौशनी मचलती रहे

सफ़ीने डूब गए कितने दिल के सागर में
ख़ुदा करे तिरी यादों की नाव चलती रहे