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ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने | शाही शायरी
ye nim-baz teri ankhDiyon ke maiKHane

ग़ज़ल

ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने

नुशूर वाहिदी

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ये नीम-बाज़ तिरी अँखड़ियों के मयख़ाने
नज़र मिले तो छलक जाएँ दिल के पैमाने

कहीं कली ने तबस्सुम का राज़ समझा है
जो ख़ुद चमन है वो अपनी बहार क्या जाने

अजब नहीं जो मोहब्बत मुझे समझ न सके
वो अजनबी हूँ जिसे ज़ीस्त भी न पहचाने

जो होश में था तो कोई न मय-ब-जाम आया
बहक गया हूँ तो दुनिया चली है समझाने

फ़रेब-ए-मशरिक़-ओ-मग़रिब हैं रहरवान-ए-जदीद
ये बद-नसीब न आक़िल हुए न दीवाने

वो ज़िंदा है जो बहे मौज वक़्त की रौ में
वो ज़िंदा-तर है जो तूफ़ाँ में ठेरना जाने

मैं अपनी बज़्म से इतना ही दूर हूँ कि 'नुशूर'
मिरी नवाओं से कुछ आश्ना हैं बेगाने