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ये न पूछो तुम ख़ुदारा कि मिरा मकाँ कहाँ है | शाही शायरी
ye na puchho tum KHudara ki mera makan kahan hai

ग़ज़ल

ये न पूछो तुम ख़ुदारा कि मिरा मकाँ कहाँ है

रघुनाथ सहाय

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ये न पूछो तुम ख़ुदारा कि मिरा मकाँ कहाँ है
जिसे आग दी है तुम ने वही मेरा आशियाँ है

तुम्हें क्या सुनाऊँ अब मैं ग़म-ए-इश्क़ का फ़साना
वही क़िस्सा-ए-अलम है वही ग़म की दास्ताँ हे

मुझे रौशनी मिलेगी रह-ए-ज़ीस्त में उसी से
तिरा नक़्श-ए-पा है जानाँ कि चराग़-ए-कारवाँ है

मिरी हर निशात-ओ-ग़म को तिरी ज़ात से है निस्बत
तू जो आए तो बहाराँ तू न आए तो ख़िज़ाँ है

वो बहार-ए-सुब्ह-ए-रौशन ये अँधेरे शाम-ए-ग़म के
वो तो उन की थी कहानी ये हमारी दास्ताँ है

वही ज़िंदगी का लम्हा कि जो तेरे साथ गुज़रा
वही मुख़्तसर सा लम्हा मिरी उम्र-ए-जावेदाँ है

नहीं कुछ समझ में आता कि 'उमीद' को हुआ क्या
न है लब पे हर्फ़-ए-शिकवा न ज़बाँ पे अब फ़ुग़ाँ है