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ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए | शाही शायरी
ye misra kash naqsh-e-har-dar-o-diwar ho jae

ग़ज़ल

ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए

जिगर मुरादाबादी

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ये मिस्रा काश नक़्श-ए-हर-दर-ओ-दीवार हो जाए
जिसे जीना हो मरने के लिए तय्यार हो जाए

वही मय-ख़्वार है जो इस तरह मय-ख़्वार हो जाए
कि शीशा तोड़ दे और बे-पिए सरशार हो जाए

दिल-ए-इंसाँ अगर शाइस्ता-ए-असरार हो जाए
लब-ए-ख़ामोश-फ़ितरत ही लब-ए-गुफ़्तार हो जाए

हर इक बेकार सी हस्ती ब-रू-ए-कार हो जाए
जुनूँ की रूह-ए-ख़्वाबीदा अगर बेदार हो जाए

सुना है हश्र में हर आँख उसे बे-पर्दा देखेगी
मुझे डर है न तौहीन-ए-जमाल-ए-यार हो जाए

हरीम-ए-नाज़ में उस की रसाई हो तो क्यूँकर हो
कि जो आसूदा ज़ेर-ए-साया-ए-दीवार हो जाए

मआज़-अल्लाह उस की वारदात-ए-ग़म मआज़-अल्लाह
चमन जिस का वतन हो और चमन-बे-ज़ार हो जाए

यही है ज़िंदगी तो ज़िंदगी से ख़ुद-कुशी अच्छी
कि इंसाँ आलम-ए-इंसानियत पर बार हो जाए

इक ऐसी शान पैदा कर कि बातिल थरथरा उट्ठे
नज़र तलवार बन जाए नफ़स झंकार हो जाए

ये रोज़ ओ शब ये सुब्ह ओ शाम ये बस्ती ये वीराना
सभी बेदार हैं इंसाँ अगर बेदार हो जाए