ये मत समझ कि तिरे साथ कुछ नहीं करेगा
निज़ाम-ए-अर्ज़-ओ-समावात कुछ नहीं करेगा
ये तेरा माल किसी रोज़ डस ही लेगा तुझे
अगर तू इस में से ख़ैरात कुछ नहीं करेगा
अभी पिटारी तो खोली नहीं मदारी ने
तू कह रहा है कमालात कुछ नहीं करेगा
मुझे यक़ीन दिला सब रहेगा वैसा ही
जुनून-ए-अहल-ए-ख़राबात कुछ नहीं करेगा
हमीं सबील निकालेंगे बैठने की कोई
वो शख़्स बहर-ए-मुलाक़ात कुछ नहीं करेगा
अगर दिलों में लपकती है आग नफ़रत की
तो फिर ये अहद-ए-मुवाख़ात कुछ नहीं करेगा
ग़ज़ल
ये मत समझ कि तिरे साथ कुछ नहीं करेगा
अब्दुर्राहमान वासिफ़