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ये मरहले भी मोहब्बत के बाब में आए | शाही शायरी
ye marhale bhi mohabbat ke bab mein aae

ग़ज़ल

ये मरहले भी मोहब्बत के बाब में आए

मुर्तज़ा बिरलास

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ये मरहले भी मोहब्बत के बाब में आए
ख़ुलूस चाहा तो पत्थर जवाब में आए

ख़ुशा वो शौक़ कि दर दर लिए फिरा मुझ को
ज़ह-ए-नसीब कि तुम इंतिख़ाब में आए

हज़ार ज़ब्त करूँ लाख दिल को बहलाऊँ
मगर वो शक्ल जो हर रोज़ ख़्वाब में आए

मैं क्या कहूँ कि तिरा ज़िक्र ग़ैर से सुन कर
जो वसवसे दिल-ए-ख़ाना-ख़राब में आए

है शहरयार की क़ुर्बत से फ़ासला बेहतर
रहे जो क़ुर्ब में अक्सर इताब में आए

वहीं क़बीला-ए-मुर्दा-ज़मीर लिख देना
हमारा ज़िक्र जहाँ भी किताब में आए

रिया के दौर में सच बोल तो रहे हो मगर
ये वस्फ़ ही न कहीं एहतिसाब में आए

मैं अपने देस की मिट्टी से प्यार करता हूँ
ये जुर्म भी मिरी फ़र्द-ए-हिसाब में आए