ये महर ओ मह बे-चराग़ ऐसे कि राख बन कर बिखर रहे हैं
हम अपनी जाँ का दिया बुझाए किसी गली से गुज़र रहे हैं
ये दुख जो मतलूब का मिला है फ़िशार अपनी ही ज़ात का है
कि हम ख़ुद अपनी तलाश में हैं और अपने सदमों से मर रहे हैं
वजूद क्यूँ है शुहूद क्यूँ है सबात क्या है नजात क्या है
इन्ही सवालों की आग ले कर हम अपना इसबात कर रहे हैं
ऐ वक़्त के बे-क़यास धारे किधर हैं वो हम-नसब हमारे
जो एक ज़िंदा ख़बर की ख़ातिर ख़ुद आप से बे-ख़बर रहे हैं
अज़िय्यतों का नुज़ूल मौक़ूफ़ ख़ाक उड़ाने ही पर नहीं है
अज़ाब उन को भी तो मिले हैं जो लोग अपने ही घर रहे हैं
नज़र में इतनी शबाहतें हैं कि उस की पहचान खो गई है
समाअतों में है शोर इतना कि हर सदा से मुकर रहे हैं
हमारे अंदर का ख़ौफ़ 'साबिर' शिकस्त देने लगा है हम को
लहू की रुत अब गुज़र गई है दिलों में सहरा उतर रहे हैं
ग़ज़ल
ये महर ओ मह बे-चराग़ ऐसे कि राख बन कर बिखर रहे हैं
साबिर वसीम