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ये मानता हूँ कि सौ बार झूट कहता है | शाही शायरी
ye manta hun ki sau bar jhuT kahta hai

ग़ज़ल

ये मानता हूँ कि सौ बार झूट कहता है

वक़ार ख़ान

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ये मानता हूँ कि सौ बार झूट कहता है
मगर ये सच है वो तुम से ही प्यार करता है

अरे वो होगा मुनाफ़िक़ तुम्हारा यार नहीं
हर एक बात पे जो हाँ में हाँ मिलाता है

कहूँ मैं अच्छा बुरा या करूँ कोई बकवास
मिरा ख़ुदा ही तो हर बात मेरी सुनता है

मुआशरे का बड़ा एक अलमिया ये है
यहाँ पे जुर्म ज़ियादा फ़रोग़ पाता है

तुम्हें ज़मीं का हवाला तो रास आया नहीं
वो आसमान भला किस ने जा के देखा है

मैं उस के होने पे कामिल यक़ीन रखता हूँ
मिरे यक़ीन पे वो भी यक़ीन रखता है

ऐ मेरी हूर तिरा इंतिज़ार है अब भी
तिरा 'वक़ार' अभी तेरी राह तकता है