ये क्या वसवसे हम-सफ़र हो गए हैं
सभी रास्ते पुर-ख़तर हो गए हैं
पुकारा नहीं तुम को ग़ैरत ने वर्ना
कई बार आकर इधर हो गए हैं
न समझो हमें कुछ शिकायत नहीं है
कि ख़ामोश कुछ सोच कर हो गए हैं
किसे हो ख़बर दर्द-ए-पिन्हाँ की ऐ दिल
जिन्हें थी ख़बर बे-ख़बर हो गए हैं
हम अपनी तबाही पे बस मुस्कुराए
मगर दामन-ए-ग़ैर तर हो गए हैं
तिरे बिन हमें मौत भी तो न आई
जुदाई के दिन भी बसर हो गए हैं
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ग़ज़ल
ये क्या वसवसे हम-सफ़र हो गए हैं
मुश्ताक़ नक़वी