EN اردو
ये क्या कि ख़ल्क़ को पूरा दिखाई देता हूँ | शाही शायरी
ye kya ki KHalq ko pura dikhai deta hun

ग़ज़ल

ये क्या कि ख़ल्क़ को पूरा दिखाई देता हूँ

अली मुज़म्मिल

;

ये क्या कि ख़ल्क़ को पूरा दिखाई देता हूँ
मगर मैं ख़ुद को अधूरा सुझाई देता हूँ

अजल को जा के गरेबान से पकड़ लाए
मैं ज़िंदगी को वहाँ तक रसाई देता हूँ

मैं अपने जिस्म के सब मुनक़सिम हवालों को
ब-नाम-ए-रिज़्क़ सुख़न की कमाई देता हूँ

वो ज़िंदगी में मुझे फिर कभी नहीं मिलता
मैं अपने ख़्वाबों से जिस को रिहाई देता हूँ

मुझे सिला न सताइश न अद्ल है मतलूब
मैं अपने सामने अपनी सफ़ाई देता हूँ

ये शोर मेरा तख़ातुब नहीं सुनेगा 'अली'
मैं ख़ामुशी को मुकम्मल सुनाई देता हूँ