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ये क्या हुआ कि सभी अब तो दाग़ जलने लगे | शाही शायरी
ye kya hua ki sabhi ab to dagh jalne lage

ग़ज़ल

ये क्या हुआ कि सभी अब तो दाग़ जलने लगे

फ़रहान सालिम

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ये क्या हुआ कि सभी अब तो दाग़ जलने लगे
हवा चली तो लहू में चराग़ जलने लगे

मिटा गया था लहू के सभी निशाँ क़ातिल
मगर जो शाम ढली सब चराग़ जलने लगे

इक ऐसी फ़स्ल उतरने को है गुलिस्ताँ में
ज़माना देखे कि फूलों से बाग़ जलने लगे

निगाह-ए-ताइर-ए-ज़िंदाँ उठी थी घर की तरफ़
कि सोज़-ए-आतश-ए-गिर्यां से दाग़ जलने लगे

अब उस मक़ाम पे है मौसमों का सर्द मिज़ाज
कि दिल सुलगने लगे और दिमाग़ जलने लगे

अब आ भी जा कि यूँ ही दूर दूर रहने से
ये मेरे होंट वो तेरे अयाग़ जलने लगे

नहा के नहर से 'सालिम' परी वो क्या निकली
कि ताब-ए-हुस्न से ख़ुद अस्तबाग़ जलने लगे