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ये क्या कि पहले क़रीब होना बना के चलना है फ़ासला फिर | शाही शायरी
ye kya ki pahle qarib hona bana ke chalna hai fasla phir

ग़ज़ल

ये क्या कि पहले क़रीब होना बना के चलना है फ़ासला फिर

मुर्ली धर शर्मा तालिब

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ये क्या कि पहले क़रीब होना बना के चलना है फ़ासला फिर
कि दश्त-ए-क़ुर्बत में ख़ुद ही खोना तलाश करना है रास्ता फिर

सफ़र हुआ था जहाँ से जारी उसी जगह पर है लौटना फिर
क़दम क़दम हादसों से लड़ना न हम से होगा ये हौसला फिर

उसे उदासी में याद करना कि याद कर के उदास होना
ये पूछ हम से है कितना मुश्किल बिखरना और ख़ुद को जोड़ना फिर

हो आज-कल तुम नहीं रहोगे कोई तो लेगा जगह तुम्हारी
जहाँ थमा था वहीं से लेकिन शुरूअ' होगा ये सिलसिला फिर

नज़र जो आए वो सच नहीं है नज़र को क्यूँ कर नज़र भी आए
कि गर्द चेहरे से मत हटाओ लो तोड़ डालो ये आइना फिर

हमें जज़ीरे पे जब उतारा तो इस सफ़ीने पे नाज़ क्यूँ हो
कि बहर-ए-हस्ती का है ये हासिल तो इस से बेहतर था डूबना फिर

कोई यहाँ मुस्कुरा रहा है किसी के आँसू छलक रहे हैं
सुना है मैं ने मुशाएरे में हुआ है 'तालिब' ग़ज़ल-सरा फिर