ये किस ने शाख़-ए-गुल ला कर क़रीब-ए-आशियाँ रख दी
कि मैं ने शौक़-ए-गुल-बोसी में काँटों पर ज़बाँ रख दी
सुना था क़िस्सा-ख़्वाँ कोई नया क़िस्सा सुनाएगा
हमारे मुँह पे ज़ालिम ने हमारी दास्ताँ रख दी
ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना
वहीं काबा सरक आया जबीं हम ने जहाँ रख दी
उठाया मैं ने शाम-ए-हिज्र लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू क्या क्या
तसव्वुर ने तिरी तस्वीर के मुँह में ज़बाँ रख दी
ग़ज़ल
ये किस ने शाख़-ए-गुल ला कर क़रीब-ए-आशियाँ रख दी
सीमाब अकबराबादी