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ये किस ने शाख़-ए-गुल ला कर क़रीब-ए-आशियाँ रख दी | शाही शायरी
ye kis ne shaKH-e-gul la kar qarib-e-ashiyan rakh di

ग़ज़ल

ये किस ने शाख़-ए-गुल ला कर क़रीब-ए-आशियाँ रख दी

सीमाब अकबराबादी

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ये किस ने शाख़-ए-गुल ला कर क़रीब-ए-आशियाँ रख दी
कि मैं ने शौक़-ए-गुल-बोसी में काँटों पर ज़बाँ रख दी

सुना था क़िस्सा-ख़्वाँ कोई नया क़िस्सा सुनाएगा
हमारे मुँह पे ज़ालिम ने हमारी दास्ताँ रख दी

ख़ुलूस-ए-दिल से सज्दा हो तो उस सज्दे का क्या कहना
वहीं काबा सरक आया जबीं हम ने जहाँ रख दी

उठाया मैं ने शाम-ए-हिज्र लुत्फ़-ए-गुफ़्तुगू क्या क्या
तसव्वुर ने तिरी तस्वीर के मुँह में ज़बाँ रख दी