ये किस ने कहा तुम कूच करो बातें न बनाओ इंशा-जी
ये शहर तुम्हारा अपना है इसे छोड़ न जाओ इंशा-जी
जितने भी यहाँ के बासी हैं सब के सब तुम से प्यार करें
क्या उन से भी मुँह फेरोगे ये ज़ुल्म न ढाओ इंशा-जी
क्या सोच के तुम ने सींची थी ये केसर क्यारी चाहत की
तुम जिन को हँसाने आए थे उन को न रुलाओ इंशा-जी
तुम लाख सियाहत के हो धनी इक बात हमारी भी मानो
कोई जा के जहाँ से आता नहीं उस देस न जाओ इंशा-जी
बिखराते हो सोना हर्फ़ों का तुम चाँदी जैसे काग़ज़ पर
फिर इन में अपने ज़ख़्मों का मत ज़हर मिलाओ इंशा-जी
इक रात तो क्या वो हश्र तलक रक्खेगी खुला दरवाज़े को
कब लौट के तुम घर आओगे सजनी को बताओ इंशा-जी
नहीं सिर्फ़ 'क़तील' की बात यहाँ कहीं 'साहिर' है कहीं 'आली' है
तुम अपने पुराने यारों से दामन न छुड़ाओ इंशा-जी
ग़ज़ल
ये किस ने कहा तुम कूच करो बातें न बनाओ इंशा-जी
क़तील शिफ़ाई