ये किस ने दश्त-ए-बला से मुझे पुकारा है
अभी अभी तो मुझे ज़िंदगी ने हारा है
तसव्वुर-ए-रुख़-ए-जानाँ किए हुए हम लोग
हमारी आँख में आँसू नहीं सितारा है
कोई चराग़ न जुगनू न आइना न किताब
ये कैसा ख़्वाब मिरी आँख पर उतारा है
बस इक उमीद है जिस ने सँभाल रक्खा है
बस एक नाम है जिस का हमें सहारा है
अभी मैं आया-ए-ततहीर पढ़ने वाला हूँ
ये ख़ामुशी किसी इल्हाम का इशारा है

ग़ज़ल
ये किस ने दश्त-ए-बला से मुझे पुकारा है
राहिल बुख़ारी