ये किस ने डाल काँटों की क़रीब-ए-आशियाँ रख दी
कहाँ की चीज़ थी नादान ने देखो कहाँ रख दी
अब इस दीवानगी पर क्यूँ न वारे जाएँ हम यारो
कि जिस ने ख़ार के मुँह में शगूफ़े की ज़बाँ रख दी
ज़माने की नज़र में ख़ार-ओ-ख़स थे चार तिनके थे
उन्हीं पर दिल के कारी-गर ने बुनियाद-ए-जहाँ रख दी
हम अपनी बे-ख़ुदी में घर का नक़्शा भूल बैठे हैं
कहाँ है ताक़-ए-निस्याँ जिस पे तशवीश-ए-ज़ियाँ रख दी
हमारे इश्क़ के चर्चे ज़माने भर में होते थे
ये किस ने दुश्मनी आख़िर हमारे दरमियाँ रख दी
करम काफ़ी था तेरे 'सोज़' के बर्बाद करने को
सितम के हाथ में तलवार क्यूँ ए जान-ए-जाँ रख दी

ग़ज़ल
ये किस ने डाल काँटों की क़रीब-ए-आशियाँ रख दी
कान्ती मोहन सोज़