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ये किस मक़ाम पे ठहरा है कारवान-ए-वफ़ा | शाही शायरी
ye kis maqam pe Thahra hai karwan-e-wafa

ग़ज़ल

ये किस मक़ाम पे ठहरा है कारवान-ए-वफ़ा

रज़ा हमदानी

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ये किस मक़ाम पे ठहरा है कारवान-ए-वफ़ा
न रौशनी की किरन है कहीं न ताज़ा हवा

हुई है जब से यहाँ नुत्क़-ओ-लब की बख़िया-गरी
सिवाए हसरत-ए-इज़हार दिल में कुछ न रहा

इस एहतिमाम से शब-ख़ूँ पड़ा कि मुद्दत से
उजाड़ सी नज़र आती है शहर-ए-दिल की फ़ज़ा

तमाम उम्र उसी की तलाश में गुज़री
वो एक अक्स जो आईना-ए-नज़र में न था

ये किस ने आज दबे-पाँव दिल में आते ही
ख़याल-ओ-फ़िक्र का क़ुफ़्ल-ए-सुकूत तोड़ दिया

कुछ इस तरह से तिरी याद की महक आई
कि जैसे दामन-ए-सहरा में कोई फूल खिला

शिकस्त-ए-दिल पे 'रज़ा' हम भी टूट कर रोए
मगर न इतने कि सो ही सके न हम-साया