ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है
ज़माना हर घड़ी वर्ना नई साज़िश में रहता है
इसी बाइ'स मैं अपना निस्फ़ रखता हूँ अँधेरे में
मिरे अतराफ़ भी सूरज कोई गर्दिश में रहता है
मैं इक परकार सा सय्यार भी हूँ और साबित भी
जहाँ सारा मिरे क़दमों की पैमाइश में रहता है
मिरी आँखों में अब है मौजज़न बस रेत वहशत की
समुंदर अब कहाँ पलकों की हर जुम्बिश में रहता है
सुपुर्द-ए-आब यूँ ही तो नहीं करता हूँ ख़ाक अपनी
अजब मिट्टी के घुलने का मज़ा बारिश में रहता है
तसल्लुत है किसी का जब से अपनी ज़ात पर 'सारिम'
हमारा दिल बहुत आराम-ओ-आसाइश में रहता है
ग़ज़ल
ये ख़ाकी पैरहन इक इस्म की बंदिश में रहता है
अरशद जमाल 'सारिम'