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ये कौन सा मक़ाम है ऐ जोश-ए-बे-ख़ुदी | शाही शायरी
ye kaun sa maqam hai ai josh-e-be-KHudi

ग़ज़ल

ये कौन सा मक़ाम है ऐ जोश-ए-बे-ख़ुदी

रतन पंडोरवी

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ये कौन सा मक़ाम है ऐ जोश-ए-बे-ख़ुदी
रस्ता बता रहा हूँ हर इक रहनुमा को मैं

दोनों ही कामयाब हुए हैं तलाश मैं
ज़ात-ए-ख़ुदा मिली मुझे ज़ात-ए-ख़ुदा को मैं

मिट्टी उठा के देखता हूँ राह-ए-शौक़ की
भूला नहीं हूँ जोश-ए-तलब में फ़ना को मैं

हस्ती फ़ना हुई तो हक़ीक़त ये खुल गई
मैं ख़ुद बक़ा हूँ किस लिए ढूँडूँ बक़ा को मैं

क्यूँकर मैं इस को दुश्मन-ए-हस्ती क़रार दूँ
पाता हूँ मुद्दआ' का ज़रीया क़ज़ा को मैं

क्यूँ उस की जुस्तुजू का हो सौदा मुझे 'रतन'
मुझ से अगर जुदा हो तो ढूँडूँ ख़ुदा को मैं