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ये कौन माने कि ना-आश्ना-ए-राज़ है तू | शाही शायरी
ye kaun mane ki na-ashna-e-raaz hai tu

ग़ज़ल

ये कौन माने कि ना-आश्ना-ए-राज़ है तू

मानी जायसी

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ये कौन माने कि ना-आश्ना-ए-राज़ है तू
मगर यही कि ख़ुदावंद-ए-बे-नियाज़ है तो

उस आस्ताँ पे जो सर है तो सरफ़राज़ है तू
नियाज़-मंदी-ए-आलम से बे-नियाज़ है तू

समझ में आए न आए अदा-ए-चारागरी
मुझे तो है ये भरोसा कि चारासाज़ है तू

फ़ना नहीं है अजल उम्र-ए-जावेदानी है
वजूद है वो हक़ीक़त कि जिस का राज़ है तू

क़ुबूल कर मिरी दाद ऐ मिरी सियह-बख़्ती
हरीफ़-ए-ज़ुल्मत-ए-तन्हाई-ए-दराज़ है तो

नवाज़िशें तिरी मुबहम सही मगर ऐ दोस्त
ये ए'तिबार है क्या कम कि दिल-नवाज़ है तू

बड़े मराहिल-ए-दुश्वार से गुज़रना है
नियाज़ जादा है और मंज़िल-ए-नियाज़ है तू

ये मानता है ज़माना कि मैं हूँ नाज़िश-ए-सब्र
ये राज़ कोई न समझा कि मेरा नाज़ है तू

है सर ख़ुशी में तुझे पास-ए-ग़म-कशाँ 'मानी'
अजीब रिंद-ए-ख़ुदा-तर्स-ओ-पाक-बाज़ है तू