ये कौन छोड़ गया उस पे ख़ामियाँ अपनी
मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी
बना के छाप लो तुम उन को सुर्ख़ियाँ अपनी
कुएँ में फेंक दी हम ने तो नेकियाँ अपनी
बदलते वक़्त कि रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर
बदलते रहते हैं अक्सर जो टोपियाँ अपनी
क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की
मैं फाड़ देता हूँ अक्सर सब अर्ज़ियाँ अपनी
नहीं लिहाफ़ ग़िलाफ़ों की कौन बात करे
तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी
ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं
अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी
यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहजे में
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी
भले दिनों में कभी ये भी काम आएगा
अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी
हमें ही आँखों से उन को सुनाना आता नहीं
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी
मिरे लिए मिरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह
उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी
तमाम फ़लसफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं
कहीं हैं धूप कहीं छाँव वादियाँ अपनी
अभी जो धुँद में लिपटी दिखाई देती हैं
कभी तो धूप नहाएँगी बस्तियाँ अपनी
बुलंद हौसलों कि इक मिसाल हैं ये भी
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी
भुला रही है तुझे धूप 'द्विज' पहाड़ों की
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी

ग़ज़ल
ये कौन छोड़ गया उस पे ख़ामियाँ अपनी
द्विजेंद्र द्विज