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ये कश्मकश-ए-मुनइ'म-ओ-नादार कहाँ तक | शाही शायरी
ye kashmakash-e-munim-o-nadar kahan tak

ग़ज़ल

ये कश्मकश-ए-मुनइ'म-ओ-नादार कहाँ तक

वफ़ा सिद्दीक़ी

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ये कश्मकश-ए-मुनइ'म-ओ-नादार कहाँ तक
सरमाया-ओ-मेहनत की ये तकरार कहाँ तक

टूटेगी न ज़ुल्मात की दीवार कहाँ तक
उट्ठेगी न वो चश्म-ए-सहर-बार कहाँ तक

इस शहर-ए-दिल-आज़ार में अब देखना ये है
रहती है यूँही यूरिश-ए-आज़ार कहाँ तक

ख़ुशनूदी-ए-सय्याद की ख़ातिर यूँही यारो
ज़िंदानों को कहते रहें गुलज़ार कहाँ तक

इक रोज़ बिल-आख़िर मुझे तस्लीम करेंगे
झुटलाएँगे मुझ को मिरे अग़्यार कहाँ तक

इस तरह तो सर मा'रका-ए-दार न होगा
छानोगे 'वफ़ा' कूचा-ए-दिलदार कहाँ तक