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ये करिश्मा-साज़ी-ए-इश्क़ की मिरी जान ज़िंदा नज़ीर है | शाही शायरी
ye karishma-sazi-e-ishq ki meri jaan zinda nazir hai

ग़ज़ल

ये करिश्मा-साज़ी-ए-इश्क़ की मिरी जान ज़िंदा नज़ीर है

मंज़र अय्यूबी

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ये करिश्मा-साज़ी-ए-इश्क़ की मिरी जान ज़िंदा नज़ीर है
जो फ़क़ीर था वो अमीर है जो अमीर था वो फ़क़ीर है

मिरी ख़्वाहिशों की बिसात पर ये जो एक सुर्ख़ लकीर है
यही इक लकीर तो अस्ल में नए मौसमों की सफ़ीर है

न वो सर-ज़मीं न वो आसमाँ मगर आज भी सर-ए-दश्त-ए-जाँ
वही हाथ है वही मुश्क है वही प्यास है वही तीर है

किसी लब पे हर्फ़-ए-सितम तो हो कोई दुख सुपुर्द-ए-क़लम तो हो
ये बजा कि शहर-ए-मलाल में कोई 'फ़ैज़' है कोई 'मीर' है

मेरे हम-सुख़न मिरे हम-ज़बाँ बड़े ख़ुश-गुमाँ बड़े ख़ुश-बयाँ
कोई ख़्वाहिशों का ग़ुलाम है कोई ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ का असीर है

ये अजीब रुख़ है हयात का नहीं मंज़िलों से जो आश्ना
वही रास्तों का चराग़ है वही क़ाफ़िले का अमीर है