ये कैसी सुब्ह हुई कैसा ये सवेरा है
हमारे घर में अभी तक वही अंधेरा है
न जाने अब के बरस हारियों पे क्या गुज़रे
पकी है फ़स्ल तो बादल बहुत घनेरा है
कटे शजर को नई रुत का हाल क्या मालूम
कि वास्ता तो यहाँ मौसमों से मेरा है
परिंद क्यूँ न उड़ें उस दरख़्त से 'ज़ुल्फ़ी'
कमान बन गईं शाख़ें जहाँ बसेरा है
ग़ज़ल
ये कैसी सुब्ह हुई कैसा ये सवेरा है
तस्लीम इलाही ज़ुल्फ़ी