ये कैसी बात मिरा मेहरबान भूल गया
कुमक में तीर तो भेजे कमान भूल गया
जुनूँ ने मुझ से तआरुफ़ के मरहले में कहा
मैं वो हुनर हूँ जिसे ये जहान भूल गया
कुछ इस तपाक से राहें लिपट पड़ीं मुझ से
कि मैं तो सम्त-ए-सफ़र का निशान भूल गया
ख़ुमार-ए-क़ुर्बत-ए-मंज़िल था ना-रसी का जवाज़
गली में आ के मैं उस का मकान भूल गया
हर इक बदलती हुई रुत में याद आता है
वो शख़्स जो मिरा नाम-ओ-निशान भूल गया
कुछ ऐसी बात कबूतर की आँख में देखी
उक़ाब ख़ौफ़ के मारे उड़ान भूल गया
मैं सर-ब-कफ़ सर-ए-मक़्तल कुछ इस अदा से गया
कि मेरा दुश्मन-ए-जाँ आन-बान भूल गया
क़बाइल आज भी शीर-ओ-शकर नज़र आते
ख़तीब-ए-शहर मगर वो ज़बान भूल गया
ज़मीं की गोद में इतना सुकून था 'अंजुम'
कि जो गया वो सफ़र की थकान भूल गया
ग़ज़ल
ये कैसी बात मिरा मेहरबान भूल गया
अंजुम ख़लीक़