ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
मैं ज़िंदगी को बहुत देर ढोने वाला नहीं
मैं सतह-ए-आब पे इक तैरता हुआ लाशा
मुझे कोई भी समुंदर डुबोने वाला नहीं
बड़े जतन से मिला है ये अपना आप मुझे
मैं अब किसी के लिए ख़ुद को खोने वाला नहीं
फ़सील-ए-शहर तिरा आख़िरी मुहाफ़िज़ हूँ
ये शहर जागे न जागे मैं सोने वाला नहीं
वो एक तू कि तिरे ग़म में इक जहाँ रोए
वो एक मैं कि मिरा कोई रोने वाला नहीं
किसी को फूल न दे पाऊँ मैं अगर 'शहबाज़'
किसी की रूह में काँटे चुभोने वाला नहीं
ग़ज़ल
ये कार-ए-बे-समराँ मुझ से होने वाला नहीं
शहबाज़ ख़्वाजा