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ये काएनात ये बज़्म-ए-ज़ुहूर कुछ भी नहीं | शाही शायरी
ye kaenat ye bazm-e-zuhur kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

ये काएनात ये बज़्म-ए-ज़ुहूर कुछ भी नहीं

जलालुद्दीन अकबर

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ये काएनात ये बज़्म-ए-ज़ुहूर कुछ भी नहीं
तिरी नज़र में नहीं है जो नूर कुछ भी नहीं

निगह अगर हो तो हर ज़र्रे में हज़ारों तूर
निगह अगर न हो बाला-ए-तूर कुछ भी नहीं

ये क़ुर्ब ओ बोद ब-मिक़दार-ए-शौक़ सालिक हैं
जिसे तू दूर समझता है दूर कुछ भी नहीं