ये जो उठती कोंपल है जब अपना बर्ग निकालेगी
डाली डाली चाटेगी और पत्ता पत्ता खा लेगी
होनहार बिरवा के पत्ते चिकने चिकने होते हैं
बहुत नहीं कुछ थोड़े ही दिन में बेल फुनग को आलेगी
अभी तो क्या है छुटपन है नादानी है बे-होशी है
क़हर तो उस दिन होवेगा जब अपना होश सँभालेगी
नाज़-अदा और ग़मज़ों के कुछ और ही कतरेगी गुल-फूल
सीन लगावट चितवन का भी और ही इत्र निकालेगी
काजल मेहंदी पान मिसी और कंघी चोटी में हर आन
क्या क्या रंग बनावेगी और क्या क्या नक़्शे ढालेगी
जब ये तन गदरावेगा और बाज़ू बाँहें होंगे गोल
उस दम देखा चाहिए क्या क्या पेट के पाँव निकालेगी
किस किस का दिल धड़केगा और कौन मलेगा हाथों को
पक्कीं से जब अंगिया में ये कच्चे सेब उछालेगी
पान चबा और आईने में देख के अपने होंटों को
क्या क्या हँस हँस देवेगी और क्या क्या देखे-भालेगी
ख़ाना-जंगयाँ होवेंगी और लोग मरेंगे कट कट कर
शहर के कूचे-गलियों में इक शोर-ए-क़यामत डालेगी
जब ये मेवा हुस्न का रस रस पक कर होवेगा तय्यार
नाइका इस की क़ीमत का जब देखा चाहिए क्या लेगी
सोना रूपा सीम-ओ-जवाहिर सब्र ओ दिल ओ दीं होश-ओ-क़रार
आँख उठा कर देखते ही एक आन में सब रखवा लेगी
अपने वक़्त-ए-जवानी में ये शोख़ ख़ुदा ही जाने 'नज़ीर'
किस किस का ज़र लूटेगी और किस किस का घर घालेगी
ग़ज़ल
ये जो उठती कोंपल है जब अपना बर्ग निकालेगी
नज़ीर अकबराबादी